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दोहे: आचार्य संजीव 'सलिल', जबलपुर


महक-महक कर मोहती, कली भ्रमर को नित्य।

झुलस रहा है शूल चुप, गुंजित प्रीत अनित्य।।

नेह नर्मदा में नहा, हर जड़-चेतन धन्य।

कंकर भी शंकर हुआ, नहीं 'सलिल' सा अन्य।।

बौरा-गौरा झूमते, कर जोड़े ऋतुराज।

जन्म सार्थक हो गया, प्रभु दर्शन कर आज।।

नित पनघट चौपाल को, धरा रहा है धीर।

बेटे भागे शहर को सही न जाए पीर।।

महक प्यार की घोलती, साँस-साँस में गंध।

आस-प्यास में हो तभी, जन्मों का अनुबंध।।

शहरों में जमघट हुआ, पनघट हैं वीरान।

सरपट भागा खुदी से, ख़ुद को छल इंसान।।

मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।

आत्म देवता हों सकें, परमात्मा से युक्त।।

स्वेद-परिश्रम का करे, शब्द कलम गुणगान।

श्वास देश को समर्पित, जीवन हो रसखान।।

रोगी मन को भूलकर, तन करता है भोग।

अनजाने बनता 'सलिल', मृत्यु देव का भोग।।

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