दोहांजलि
संजीव "सलिल"
मित्र-भाव अनमोल है, यह रिश्ता निष्काम.
मित्र मनाये- मित्र हित, 'सदा कुशल हो राम'..
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह.
आत्म मिले परमात्म में, तब हो देह विदेह..
जन्म ब्याह राखी तिलक, ग्रह प्रवेश त्यौहार.
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार..
चित्त-चित्त में गुप्त हैं, चित्रगुप्त परमात्म.
गुप्त चित्र निज देख ले, तभी धन्य हो आत्म..
शब्द-शब्द अनुभूतियाँ, अक्षर-अक्षर भाव.
नाद, थाप, सुर, ताल से, मिटते सकल अभाव..
सलिल साधना स्नेह की, सच्ची पूजा जान.
प्रति पल कर निष्काम तू, जीवन हो रस-खान..
उसको ही रस-निधि मिले, जो होता रस-लीन.
पान न रस का अन्य को, करने दे रस-हीन..
कहो कहाँ से आए हैं, कहाँ जायेंगे आप?
लाये थे, ले जाएँगे, सलिल पुण्य या पाप??
जितना पाया खो दिया, जो खोया है साथ.
झुका उठ गया, उठाया झुकता पाया माथ..
साथ रहा संसार तो, उसका रहा न साथ.
सबने छोड़ा साथ तो, पाया उसको साथ..
नेह-नर्मदा सनातन, 'सलिल' सच्चिदानंद.
अक्षर की आराधना, शाश्वत परमानंद..
सुधि की गठरी जिंदगी, साँसों का आधार.
धीरज धरकर खोल मन, लुटा-लूट ले प्यार..
स्नेह साधना नित करे, जो मन में धर धीर.
इस दुनिया में है नहीं, उससे बड़ा अमीर..
नेह नर्मदा में नहा, तरते तन मन प्राण.
कंकर भी शंकर बने, जड़ भी हो संप्राण..
कलकल सलिल प्रवाह में, सुन जीवन का गान.
पाषाणों को मोम कर, दे॑ दे कर मुस्कान..
******************************
कविता: कायस्थ -प्रतिभा
pratibha_saksena@yahoo.com
'चित्त-चित्त में गुप्त हैं, चित्रगुप्त परमात्म.
गुप्त चित्र निज देख ले,'सलिल' धन्य हो आत्म.'
आचार्य जी,
'गागर मे सागर' भरने की कला के प्रमाण हैं आपके दोहे । नमन करती हूँ !
उपरोक्त दोहे से अपनी एक कविता याद आ गई प्रस्तुत है -
कायस्थ
कोई पूछता है मेरी जाति
मुझे हँसी आती है
मैं तो काया में स्थित आत्म हूँ !
न ब्राह्मण, न क्षत्री, न वैश्य, न शूद्र ,
कोई जाति नहीं मेरी,
लोगों ने जो बना रखी हैं !
मैं नहीं जन्मा हूँ मुँह से,
न हाथ से, न पेट से, न पैर से,
किसी अकेले अंग से नहीं !
उस चिद्आत्म के पूरे तन
और भावन से प्रकटित स्वरूप- मैं,
सचेत, स्वतंत्र,निर्बंध!
सहज मानव, पूर्वाग्रह रहित!
मुझे परहेज़ नहीं नये विचारों से,
ढाल लेता हूँ स्वयं को
समय के अनुरूप !
पढ़ता-लिखता,
सोच-विचार कर
लेखा-जोखा करता हूँ
इस दुनिया का !
रचा तुमने,
चेतना का एक चित्र
जो गुप्त था तुम्हारे चित्त में,
ढाल दिया उसे काया में!
कायस्थ हूँ मैं!
प्रभु!अच्छा किया तुमने,
कि कोई जाति न दे
मुझे कायस्थ बनाया !
- प्रतिभा.
ambarishji@gmail.com
आदरणीय आचार्य जी ,
महराज चित्रगुप्त को नमन करते हुए मैं आदरणीया प्रतिभा जी से प्रेरित होकर की राह में चल रहा हूँ
कायस्थ
मनुज योनि के सृजक हैं, ब्रह्माजी महराज
सकल सृष्टि उनकी रची, उनमें जग का राज
मुखारबिंदु से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय पूत
वैश्य जनम है उदर से, जंघा से सब शूद्र
धर्मराज व्याकुल हुए, लख चौरासी योनि
संकट भारी हो रहा, लेखा देखे कौन
ब्रह्माजी को तब हुआ, भगवन का आदेश
ग्यारह शतकों तप करो , प्रकटें स्वयं यमेश
काया से उत्त्पन्न हैं, कहते वेद पुराण
व्योम संहिता में मिले , कुल कायस्थ प्रमाण
चित्त साधना से हुए , गुप्त रखें सब काम
ब्रह्माजी नें तब रखा, चित्रगुप्त शुभ नाम
ब्राह्मण सम कायस्थ हैं , सुरभित सम सुप्रभात
ब्रह्म कायस्थ जगत में, कब से है विख्यात
प्रतिभा शील विनम्रता, निर्मल सरस विचार
पर-उपकार सदाचरण, इनका है आधार
सबको आदर दे रहे, रखते सबका मान
सारे जग के मित्र हैं, सदगुण की ये खान
दुनिया में फैले सदा, विद्या बिंदु प्रकाश
एक सभी कायस्थ हों, मिलकर करें प्रयास
कायस्थों की कामना, सब होवें कायस्थ
सूर्य ज्ञान का विश्व में, कभी ना होवे अस्त
सादर,
--अम्बरीष श्रीवास्तव (Architectural Engineer)
91, Agha Colony, Civil Lines Sitapur (U. P.)Mobile 09415047020
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