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मई
(10)
मिथिला में सजी बरात
मिथिला में सजी बरात, सखी! देखन चलिए...
शंख मंजीरा तुरही बाजे, सजे गली घर द्वार.
सखी! देखन चलिए...
हाथी सज गए, घोड़ा सज गए, सज गए रथ असवार।
सखी! देखन चलिए...
शिव-बिरंचि-नारद जी नभ से, देख करें जयकार।
सखी! देखन चलिए...
रामजी की घोडी झूम-नाचती, देख मुग्ध नर-नार।
सखी! देखन चलिए...
भरत-लखन की शोभा न्यारी, जनगण है बलिहार।
सखी! देखन चलिए...
लाल शत्रुघन लगें मनोहर, दशरथ रहे दुलार।
सखी! देखन चलिए...
'शान्ति' प्रफुल्लित हैं सुमंत जी, नाच रहे सरदार।
सखी! देखन चलिए...
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ॐ रुद्रतनया नर्मदे, शतशः समर्पित वन्दना।
हे देव वन्दित, धरा-मंडित , भू तरंगित वन्दना॥
पयामृत धारामयी हो, ओ तरल तरंगना।
मीन, कच्छप मकर विचरें, नीर तीरे रंजना॥
कल-कल करती निनाद, उछल-कूद भँवर जाल।
दिव्य-रम्य शीतालाप, सत्य-शिवम् तिलक भाल॥
कोटि-कोटि तीर्थराज, कण-कण शिव जी विराज।
देव-दनुज नर बसते, तट पर तेरे स्वकाम।
मोदमयी अठखेलियाँ, नवल धवलित लहरियाँ।
अमरकंटकी कली, भारती चली किलकारियाँ॥
ओ! विन्ध्यवासिनी, अति उत्तंग रंजनी।
अटल, अचल, रागिनी, स्वयं शिवा-त्यागिनी॥
पाप-तापहारिणी, दिग्-दिगंत पालिनी।
शाश्वत मनभावनी, दूर दृष्टि गामिनी॥
पर्वत, गुह, वन, कछार, पथराया वन-पठार।
भील, गोंड, शिव, सांवर, ब्रम्हज्ञानी वा नागर।
सुर-नर-मुनियों की मीत, वनचर विचरें सप्रीत।
उच्च श्रृंग शाल-ताल, मुखरित वन लोकगीत॥
महामहिम तन प्रभाव, तीन लोक दर्शना।
धन-जन पालन स्वभाव, माता गिरी नंदना॥
निर्मल जल प्राण सोम, सार तोय वर्षिणी।
साधक मन सदा रटत, भक्ति कर्म- मोक्षिणी॥
ध्यान धरूँ, सदा जपूँ, मंगल कर वर्मदे।
मानस सतत विराज, देवि मातृ नर्मदे!!
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मगरमच्छ सरपंच
मछलियाँ घेरे में
फंसे कबूतर आज
बाज के फेरे में...
सोनचिरैया विकल
न कोयल कूक रही
हिरनी नाहर देख
न भागी, मूक रही
जुड़े पाप ग्रह सभी
कुण्डली मेरे में...
गोली अमरीकी
बोली अंगरेजी है
ऊपर चढ़ क्यों
तोडी स्वयं नसेनी है?
सन्नाटा छाया
जनतंत्री डेरे में...
हँसिया फसलें
अपने घर में भरता है
घोड़ा-माली
हरी घास ख़ुद
चरता है
शोले सुलगे हैं
कपास के डेरे में...
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मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,
हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई
नज़र मिलाते ही मुझसे वो लाज़वाब हुआ,
कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई
उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,
कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई
कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,
दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई
है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,
यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई
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मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,
हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई
नज़र मिलाते ही मुझसे वो लाज़वाब हुआ,
कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई
उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,
कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई
कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,
दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई
है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,
यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई
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भोजन हजम न हो रहा, बिना टिप्पणी मीत।
भला-बुरा कुछ तो कहो, भावी आज अतीत॥
भावी आज अतीत, व्यतीत समय हो अपना।
मिले टिप्पणी, लगे हुआ है पूरा सपना।
नहीं टिप्पणी मिले सजन से रूठे साजन।
'सलिल' टिप्पणी बिना हजम हो रहा न भोजन।
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महक-महक कर मोहती, कली भ्रमर को नित्य।
झुलस रहा है शूल चुप, गुंजित प्रीत अनित्य।।
नेह नर्मदा में नहा, हर जड़-चेतन धन्य।
कंकर भी शंकर हुआ, नहीं 'सलिल' सा अन्य।।
बौरा-गौरा झूमते, कर जोड़े ऋतुराज।
जन्म सार्थक हो गया, प्रभु दर्शन कर आज।।
नित पनघट चौपाल को, धरा रहा है धीर।
बेटे भागे शहर को सही न जाए पीर।।
महक प्यार की घोलती, साँस-साँस में गंध।
आस-प्यास में हो तभी, जन्मों का अनुबंध।।
शहरों में जमघट हुआ, पनघट हैं वीरान।
सरपट भागा खुदी से, ख़ुद को छल इंसान।।
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
आत्म देवता हों सकें, परमात्मा से युक्त।।
स्वेद-परिश्रम का करे, शब्द कलम गुणगान।
श्वास देश को समर्पित, जीवन हो रसखान।।
रोगी मन को भूलकर, तन करता है भोग।
अनजाने बनता 'सलिल', मृत्यु देव का भोग।।
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रात बीती जा रही है, चाँद ढलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का राज खुलता जा रहा है॥
कब छुड़ा पाये भ्रमर की
फूल पर कटु शूल गुंजन?
कब किसी की बात सुनता,
रूप पर रीझा हुआ मन?
कब शलभ ने दीप पर जल,
अनल की परवाह की है?
प्यार में किसने कहाँ कब
जिंदगी की चाह की है?
किंतु फिर भी जिंदगी में, प्यार पलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का राज खुलता जा रहा है॥
प्यार के सब काम गुपचुप
ही किये जाते रहे हैं।
शाप खुलकर, दान छिपकर
ही दिये जाते रहे हैं॥
हलाहल कुहराम कर दे,
शोर मदिरा पर भले हो।
पर सुधा के जाम तो,
छिपकर पिये जाते रहे हैं॥
होंठ खुलते जा रहे हैं, जाम ढलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का राज खुलता जा रहा है॥
सोचता हूँ मौत से पहले ,
तुम्हीं से प्यार कर लूँ।
पार जाने से प्रथम,
मझधार पर एतबार कर लूँ॥
जानता है दीप, यदि है
ज्योति शाश्वत, चिर जलन तो
माँग में सिंदूर के बदले
न क्यों अंगार भर लूँ?
नेह चढ़ता जा रहा है, दीप जलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का राज खुलता जा रहा है॥
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मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,
हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई
नज़र मिलाते ही मुझसे वो लाज़वाब हुआ,
कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई
उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,
कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई
कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,
दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई
है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,
यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई
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