नव वर्ष पर नवगीत
संजीव 'सलिल'
*
महाकाल के महाग्रंथ का
नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....
*
वह काटोगे,
जो बोया है.
वह पाओगे,
जो खोया है.
सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर
कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना
मूल्यांकन कर लो.
निज मन का
छायांकन कर लो.
तम-उजास को जोड़ सके जो
कहीं बनाया कोई पुल रहा?...
*
तुमने कितने
बाग़ लगाये?
श्रम-सीकर
कब-कहाँ बहाए?
स्नेह-सलिल कब सींचा?
बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...
*
स्नेह-साधना करी
'सलिल' कब.
दीन-हीन में
दिखे कभी रब?
चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर
खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...
*
खाली हाथ
न रो-पछताओ.
कंकर से
शंकर बन जाओ.
ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.
देखोगे मन मलिन धुल रहा...
**********************
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सामयिक दोहे
संजीव 'सलिल'
पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.
मैं ढूंढ-ढूंढ हरा, घर एक नहीं मिलता..
रश्मि रथी की रश्मि के दर्शन कर जग धन्य.
तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य..
राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य.
लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य..
कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान.
जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान..
इस राक्षस राठोड का होगा सत्यानाश.
साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश..
नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक.
मैली चादर हो गयी, चुभा कुयश का डंक..
फंसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त.
जैसे मरने जा रहा, कीचड में गज मत्त.
कीचड में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी.
कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई..
******************
Acharya Sanjiv Salil
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दोहांजलि
संजीव "सलिल"
मित्र-भाव अनमोल है, यह रिश्ता निष्काम.
मित्र मनाये- मित्र हित, 'सदा कुशल हो राम'..
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह.
आत्म मिले परमात्म में, तब हो देह विदेह..
जन्म ब्याह राखी तिलक, ग्रह प्रवेश त्यौहार.
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार..
चित्त-चित्त में गुप्त हैं, चित्रगुप्त परमात्म.
गुप्त चित्र निज देख ले, तभी धन्य हो आत्म..
शब्द-शब्द अनुभूतियाँ, अक्षर-अक्षर भाव.
नाद, थाप, सुर, ताल से, मिटते सकल अभाव..
सलिल साधना स्नेह की, सच्ची पूजा जान.
प्रति पल कर निष्काम तू, जीवन हो रस-खान..
उसको ही रस-निधि मिले, जो होता रस-लीन.
पान न रस का अन्य को, करने दे रस-हीन..
कहो कहाँ से आए हैं, कहाँ जायेंगे आप?
लाये थे, ले जाएँगे, सलिल पुण्य या पाप??
जितना पाया खो दिया, जो खोया है साथ.
झुका उठ गया, उठाया झुकता पाया माथ..
साथ रहा संसार तो, उसका रहा न साथ.
सबने छोड़ा साथ तो, पाया उसको साथ..
नेह-नर्मदा सनातन, 'सलिल' सच्चिदानंद.
अक्षर की आराधना, शाश्वत परमानंद..
सुधि की गठरी जिंदगी, साँसों का आधार.
धीरज धरकर खोल मन, लुटा-लूट ले प्यार..
स्नेह साधना नित करे, जो मन में धर धीर.
इस दुनिया में है नहीं, उससे बड़ा अमीर..
नेह नर्मदा में नहा, तरते तन मन प्राण.
कंकर भी शंकर बने, जड़ भी हो संप्राण..
कलकल सलिल प्रवाह में, सुन जीवन का गान.
पाषाणों को मोम कर, दे॑ दे कर मुस्कान..
******************************
कविता: कायस्थ -प्रतिभा
pratibha_saksena@yahoo.com
'चित्त-चित्त में गुप्त हैं, चित्रगुप्त परमात्म.
गुप्त चित्र निज देख ले,'सलिल' धन्य हो आत्म.'
आचार्य जी,
'गागर मे सागर' भरने की कला के प्रमाण हैं आपके दोहे । नमन करती हूँ !
उपरोक्त दोहे से अपनी एक कविता याद आ गई प्रस्तुत है -
कायस्थ
कोई पूछता है मेरी जाति
मुझे हँसी आती है
मैं तो काया में स्थित आत्म हूँ !
न ब्राह्मण, न क्षत्री, न वैश्य, न शूद्र ,
कोई जाति नहीं मेरी,
लोगों ने जो बना रखी हैं !
मैं नहीं जन्मा हूँ मुँह से,
न हाथ से, न पेट से, न पैर से,
किसी अकेले अंग से नहीं !
उस चिद्आत्म के पूरे तन
और भावन से प्रकटित स्वरूप- मैं,
सचेत, स्वतंत्र,निर्बंध!
सहज मानव, पूर्वाग्रह रहित!
मुझे परहेज़ नहीं नये विचारों से,
ढाल लेता हूँ स्वयं को
समय के अनुरूप !
पढ़ता-लिखता,
सोच-विचार कर
लेखा-जोखा करता हूँ
इस दुनिया का !
रचा तुमने,
चेतना का एक चित्र
जो गुप्त था तुम्हारे चित्त में,
ढाल दिया उसे काया में!
कायस्थ हूँ मैं!
प्रभु!अच्छा किया तुमने,
कि कोई जाति न दे
मुझे कायस्थ बनाया !
- प्रतिभा.
ambarishji@gmail.com
आदरणीय आचार्य जी ,
महराज चित्रगुप्त को नमन करते हुए मैं आदरणीया प्रतिभा जी से प्रेरित होकर की राह में चल रहा हूँ
कायस्थ
मनुज योनि के सृजक हैं, ब्रह्माजी महराज
सकल सृष्टि उनकी रची, उनमें जग का राज
मुखारबिंदु से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय पूत
वैश्य जनम है उदर से, जंघा से सब शूद्र
धर्मराज व्याकुल हुए, लख चौरासी योनि
संकट भारी हो रहा, लेखा देखे कौन
ब्रह्माजी को तब हुआ, भगवन का आदेश
ग्यारह शतकों तप करो , प्रकटें स्वयं यमेश
काया से उत्त्पन्न हैं, कहते वेद पुराण
व्योम संहिता में मिले , कुल कायस्थ प्रमाण
चित्त साधना से हुए , गुप्त रखें सब काम
ब्रह्माजी नें तब रखा, चित्रगुप्त शुभ नाम
ब्राह्मण सम कायस्थ हैं , सुरभित सम सुप्रभात
ब्रह्म कायस्थ जगत में, कब से है विख्यात
प्रतिभा शील विनम्रता, निर्मल सरस विचार
पर-उपकार सदाचरण, इनका है आधार
सबको आदर दे रहे, रखते सबका मान
सारे जग के मित्र हैं, सदगुण की ये खान
दुनिया में फैले सदा, विद्या बिंदु प्रकाश
एक सभी कायस्थ हों, मिलकर करें प्रयास
कायस्थों की कामना, सब होवें कायस्थ
सूर्य ज्ञान का विश्व में, कभी ना होवे अस्त
सादर,
--अम्बरीष श्रीवास्तव (Architectural Engineer)
91, Agha Colony, Civil Lines Sitapur (U. P.)Mobile 09415047020
नव गीत :
संजीव 'सलिल'
ओढ़ कुहासे की चादर,
धरती लगाती दादी.
ऊँघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...
सूर्य अँगारों की सिगडी है,
ठण्ड भगा ले भैया.
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया.
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...
कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर.
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर.
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...
नैतिकता की गाय काँपती,
संयम छत टपके.
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके.
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...
भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला.
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फँसा, फिसला.
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है.
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है.
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी...
हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा.
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा.
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...
*****
नव गीत :
संजीव 'सलिल'
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
कल से कल के
बीच आज है.
शीश चढा, पग
गिरा ताज है.
कल का गढ़
है आज खंडहर.
जड़ जीवन ज्यों
भूतों का घर.
हो चेतन
घुँघरू खनकाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जनगण-हित से
बड़ा अहम् था.
पल में माटी
हुआ वहम था.
रहे न राजा,
नौकर-चाकर.
शेष न जादू
या जादूगर.
पत्थर छप रह
कथा सुनाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
जन-रंजन
जब साध्य नहीं था.
तन-रंजन
आराध्य यहीं था.
शासक-शासित में
यदि अंतर.
काल नाश का
पढता मंतर.
सबक भूत का
हम पढ़ पाएँ.
चलो भूत से
मिलकर आएँ...
*
आज की रचना:
नवगीत
संजीव 'सलिल'
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
भूलो भी तहजीब
विवश हो मुस्काने की.
देख पराया दर्द,
छिपा मुँह हर्षाने की.
घिसे-पिटे
जुमलों का
माया-जाल समेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
फुला फेंफड़ा
अट्टहास से
गगन गुंजा दो.
बैर-परायेपन की
बंजर धरा कँपा दो.
निजता का
हर ताना-बाना
तोड़-लपेटो.
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
बैठ चौंतरे पर
गाओ कजरी
दे ताली.
कोई पडोसन भौजी हो,
कोई हो साली.
फूहड़ दूरदर्शनी रिश्ते
'सलिल' न फेंटो. .
फेंक अबीरा,
गाओ कबीरा,
भुज भर भेंटो...
*
Acharya Sanjiv Salil
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लेबल: geet, navgeet, sanjiv 'salil'
*********************************
गीतिका
तुम
आचार्य संजीव 'सलिल'
सारी रात जगाते हो तुम.
नज़र न फिर भी आते हो तुम.
थक कर आँखें बंद करुँ तो-
सपनों में मिल जाते हो तुम.
पहले मुझ से आँख चुराते,
फिर क्यों आँख मिलाते हो तुम?
रूठ मौन हो कभी छिप रहे,
कभी गीत नव गाते हो तुम
'सलिल' बांह में कभी लजाते,
कभी दूर हो जाते हो तुम.
नटवर नटनागर छलिया से,
नचते नाच नचाते हो तुम
****************************
शोक गीत:
-आचार्य संजीव 'सलिल'
(प्रसिद्ध कवि-कथाकार-प्रकाशक, स्व. डॉ. (प्रो.) दिनेश खरे, विभागाध्यक्ष सिविल इंजीनियरिंग, शासकीय इंजीनियरिंग महाविद्यालय जबलपुर, सचिव इंडियन जियोटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर के असामयिक निधन पर )
नर नहीं,
नर-रत्न थे तुम,
समय कीमत
कर न पाया...
***
विरल थी
प्रतिभा तुम्हारी.
ज्ञान के थे
तुम पुजारी.
समस्याएँ
बूझते थे.
रूढियों से
जूझते थे.
देव ने
क्षमताएँ अनुपम
देख क्या
असमय बुलाया?...
***
नाथ थे तुम
'निशा' के पर
शशि नहीं,
'दिनेश' भास्वर.
कोशिशों में
गूँजता था
लग्न-निष्ठा
वेणु का स्वर.
यांत्रिकी-साहित्य-सेवा
दिग्-दिगन्तों
यश कमाया...
***
''शीघ्र आऊंगा''
गए-कह.
कहो तो,
हो तुम कहाँ रह?
तुम्हारे बिन
ह्रदय रोता
नयन से
आँसू रहे बह.
दूर 'अतिमा' से हुए-
'कौसुन्न' को भी
है भुलाया...
***
प्राण थे
'दिनमान' के तुम.
'विनय' के
अभिमान थे तुम.
'सुशीला' की
मृदुल ममता,
स्वप्न थे
अरमान थे तुम.
दिखाए-
सपने सलोने
कहाँ जाकर,
क्यों भुलाया?...
***
सीख कुछ
तुमसे सकें हम.
बाँट पायें ख़ुशी,
सह गम.
ज्ञान दें,
नव पीढियों को.
शान दें
कुछ सीढियों को.
देव से
जो जन्म पाया,
दीप बन
सार्थक बनाया.
***
नर नहीं,
नर-रत्न थे तुम,
'सलिल' कीमत
कर न पाया...
***
अमर शहीद चन्द्र शेखर आजाद जयंती पर विशेष रचना
आचार्य संजीव 'सलिल'
तुम
गुलाम देश में
आजाद हो जिए
और हम
आजाद देश में
गुलाम हैं....
तुम निडर थे
हम डरे हैं,
अपने भाई से.
समर्पित तुम,
दूर हैं हम
अपनी माई से.
साल भर
भूले तुम्हें पर
एक दिन 'सलिल'
सर झुकाए बन गए
विनत सलाम हैं...
तुम वचन औ'
कर्म को कर
एक थे जिए.
हमने घूँट
जन्म से ही
भेद के पिए.
बात या
बेबात भी
आपस में
नित लड़े.
एकता?
माँ की कसम
हमको हराम है...
तुम
गुलाम देश में
आजाद हो जिए
और हम
आजाद देश में
गुलाम हैं....
***************
लेबल: एक्य, क्रन्तिकारी, चंद्रशेखाए आजाद, देश, भारत, शहीद, सलिल
नवगीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
हवा में ठंडक
बहुत है...
काँपता है
गात सारा
ठिठुरता
सूरज बिचारा.
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को
आँकते हैं.
युवा में खुंदक
बहुत है...
गर्मजोशी
चुक न पाए,
पग उठा जो
रुक न पाए.
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी
अभी भी.
दुआ दुःख-भंजक
बहुत है...
हवा
बर्फीली-विषैली,
नफरतों के
साथ फैली.
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो
रह सकें हँस.
स्नेह सुख-वर्धक
बहुत है...
चिमनियों का
धुँआ गंदा
सियासत है
स्वार्थ-फंदा.
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की
डफली बजाएँ.
चुनौती घातक
बहुत है...
नियामक हम
आत्म के हों,
उपासक
परमात्म के हों.
तिमिर में
भास्कर प्रखर हों-
मौन में
वाणी मुखर हों.
साधना ऊष्मक
बहुत है...
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मिथिला में सजी बरात
मिथिला में सजी बरात, सखी! देखन चलिए...
शंख मंजीरा तुरही बाजे, सजे गली घर द्वार.
सखी! देखन चलिए...
हाथी सज गए, घोड़ा सज गए, सज गए रथ असवार।
सखी! देखन चलिए...
शिव-बिरंचि-नारद जी नभ से, देख करें जयकार।
सखी! देखन चलिए...
रामजी की घोडी झूम-नाचती, देख मुग्ध नर-नार।
सखी! देखन चलिए...
भरत-लखन की शोभा न्यारी, जनगण है बलिहार।
सखी! देखन चलिए...
लाल शत्रुघन लगें मनोहर, दशरथ रहे दुलार।
सखी! देखन चलिए...
'शान्ति' प्रफुल्लित हैं सुमंत जी, नाच रहे सरदार।
सखी! देखन चलिए...
***********
ॐ रुद्रतनया नर्मदे, शतशः समर्पित वन्दना।
हे देव वन्दित, धरा-मंडित , भू तरंगित वन्दना॥
पयामृत धारामयी हो, ओ तरल तरंगना।
मीन, कच्छप मकर विचरें, नीर तीरे रंजना॥
कल-कल करती निनाद, उछल-कूद भँवर जाल।
दिव्य-रम्य शीतालाप, सत्य-शिवम् तिलक भाल॥
कोटि-कोटि तीर्थराज, कण-कण शिव जी विराज।
देव-दनुज नर बसते, तट पर तेरे स्वकाम।
मोदमयी अठखेलियाँ, नवल धवलित लहरियाँ।
अमरकंटकी कली, भारती चली किलकारियाँ॥
ओ! विन्ध्यवासिनी, अति उत्तंग रंजनी।
अटल, अचल, रागिनी, स्वयं शिवा-त्यागिनी॥
पाप-तापहारिणी, दिग्-दिगंत पालिनी।
शाश्वत मनभावनी, दूर दृष्टि गामिनी॥
पर्वत, गुह, वन, कछार, पथराया वन-पठार।
भील, गोंड, शिव, सांवर, ब्रम्हज्ञानी वा नागर।
सुर-नर-मुनियों की मीत, वनचर विचरें सप्रीत।
उच्च श्रृंग शाल-ताल, मुखरित वन लोकगीत॥
महामहिम तन प्रभाव, तीन लोक दर्शना।
धन-जन पालन स्वभाव, माता गिरी नंदना॥
निर्मल जल प्राण सोम, सार तोय वर्षिणी।
साधक मन सदा रटत, भक्ति कर्म- मोक्षिणी॥
ध्यान धरूँ, सदा जपूँ, मंगल कर वर्मदे।
मानस सतत विराज, देवि मातृ नर्मदे!!
*******************************************
मगरमच्छ सरपंच
मछलियाँ घेरे में
फंसे कबूतर आज
बाज के फेरे में...
सोनचिरैया विकल
न कोयल कूक रही
हिरनी नाहर देख
न भागी, मूक रही
जुड़े पाप ग्रह सभी
कुण्डली मेरे में...
गोली अमरीकी
बोली अंगरेजी है
ऊपर चढ़ क्यों
तोडी स्वयं नसेनी है?
सन्नाटा छाया
जनतंत्री डेरे में...
हँसिया फसलें
अपने घर में भरता है
घोड़ा-माली
हरी घास ख़ुद
चरता है
शोले सुलगे हैं
कपास के डेरे में...
*****
मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,
हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई
नज़र मिलाते ही मुझसे वो लाज़वाब हुआ,
कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई
उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,
कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई
कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,
दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई
है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,
यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई
************
मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,
हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई
नज़र मिलाते ही मुझसे वो लाज़वाब हुआ,
कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई
उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,
कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई
कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,
दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई
है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,
यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई
**********************************
भोजन हजम न हो रहा, बिना टिप्पणी मीत।
भला-बुरा कुछ तो कहो, भावी आज अतीत॥
भावी आज अतीत, व्यतीत समय हो अपना।
मिले टिप्पणी, लगे हुआ है पूरा सपना।
नहीं टिप्पणी मिले सजन से रूठे साजन।
'सलिल' टिप्पणी बिना हजम हो रहा न भोजन।
***********************************
महक-महक कर मोहती, कली भ्रमर को नित्य।
झुलस रहा है शूल चुप, गुंजित प्रीत अनित्य।।
नेह नर्मदा में नहा, हर जड़-चेतन धन्य।
कंकर भी शंकर हुआ, नहीं 'सलिल' सा अन्य।।
बौरा-गौरा झूमते, कर जोड़े ऋतुराज।
जन्म सार्थक हो गया, प्रभु दर्शन कर आज।।
नित पनघट चौपाल को, धरा रहा है धीर।
बेटे भागे शहर को सही न जाए पीर।।
महक प्यार की घोलती, साँस-साँस में गंध।
आस-प्यास में हो तभी, जन्मों का अनुबंध।।
शहरों में जमघट हुआ, पनघट हैं वीरान।
सरपट भागा खुदी से, ख़ुद को छल इंसान।।
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
आत्म देवता हों सकें, परमात्मा से युक्त।।
स्वेद-परिश्रम का करे, शब्द कलम गुणगान।
श्वास देश को समर्पित, जीवन हो रसखान।।
रोगी मन को भूलकर, तन करता है भोग।
अनजाने बनता 'सलिल', मृत्यु देव का भोग।।
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रात बीती जा रही है, चाँद ढलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का राज खुलता जा रहा है॥
कब छुड़ा पाये भ्रमर की
फूल पर कटु शूल गुंजन?
कब किसी की बात सुनता,
रूप पर रीझा हुआ मन?
कब शलभ ने दीप पर जल,
अनल की परवाह की है?
प्यार में किसने कहाँ कब
जिंदगी की चाह की है?
किंतु फिर भी जिंदगी में, प्यार पलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का राज खुलता जा रहा है॥
प्यार के सब काम गुपचुप
ही किये जाते रहे हैं।
शाप खुलकर, दान छिपकर
ही दिये जाते रहे हैं॥
हलाहल कुहराम कर दे,
शोर मदिरा पर भले हो।
पर सुधा के जाम तो,
छिपकर पिये जाते रहे हैं॥
होंठ खुलते जा रहे हैं, जाम ढलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का राज खुलता जा रहा है॥
सोचता हूँ मौत से पहले ,
तुम्हीं से प्यार कर लूँ।
पार जाने से प्रथम,
मझधार पर एतबार कर लूँ॥
जानता है दीप, यदि है
ज्योति शाश्वत, चिर जलन तो
माँग में सिंदूर के बदले
न क्यों अंगार भर लूँ?
नेह चढ़ता जा रहा है, दीप जलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का राज खुलता जा रहा है॥
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मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,
हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई
नज़र मिलाते ही मुझसे वो लाज़वाब हुआ,
कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई
उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,
कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई
कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,
दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई
है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,
यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई
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